Friday, September 21, 2007

~~~ कमरा ~~~

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बँध कर दिया

वो कमरा … जिसकी चार दीवारे थी
हर दीवार तुमको प्यारी थी

कमरे मे सामने की दीवार पर
बहोत सारी तस्वीरे लगाई है
पिछले साल ज़िद करके
जाके खिंच्वाई थी शहर के अच्छे से स्टूडीओमे
नदी के किनारो का कोई सीन था पीछे
और “ मैं तुम्हारा किनारा” कहेके
तुमने हाथ पकड़ा था मेरा तस्वीर मे
वो पल वहा क़ैद है
पिछली बार मिले थे तो तुम्ही से
दीवार पर से वो तस्वीर गिर गई थी
काँच टूट कर जैसे तस्वीर मे भी चुभ
गया था … कुछ ख़ून – सा बहा था शायद …
वो टूटी तस्वीर अब भी वही
पड़ी है .. उसी दीवार पर .. वही दूसरी
कुछ ऐसी ही तस्वीरो के साथ
दीवारो मे सिलन हो रही है अब, फिर भी …

ठीक उसके
बाजू वाली दीवार पर
एक खिड़की हुआ करती थी
तुम आते और खड़े रहते
खिड़की के पास
कभी सूरज को वही से
चाय के लिए पूछा था
तुमने, कभी गुलमहॉर के
फूलो का लाल रंग
वही शरमाया था गालो पर
और कभी रात भर वही
खड़े रहे थे मेरी बाहो के सहारे .. चाँद को देखते हुए..
खिड़की तो कमरे की आँखे है
कुछ ऐसा ही कहा था तुमने…
कमरे ने अपनी आँखे मूँद ली है अब…

खिड़की के सामने वाली दीवार पर
एक बिस्तर, एक मेज़ पड़ा है
सफ़ेद रंग की चादर आज भी
बिछी रहती है बिना कोई सिलवट के
और मेज़ पर पड़े रहते है
लाल गुलाब के कुछ फूल
-सूखे से… सुख ही गये है बिल्कुल
मैने फिर कभी फेंका नही
ये सोचकर की तुम आओगे जब,
बदल ही लोगे – हर वक़्त की तरह…
शायद, अब तुम ना आओ तो
ये फूल तो रहेंगे….सूखे ही सही…

और आख़री दीवार की जिसमे
दरवाज़ा था … जहा से तुम आते थे
जाते थे… कभी दरवाज़े पर खड़े खड़े ही
मुजे पुकारते थे… मेरा नाम लेकर
तुम्हे मेरा कमरा पसंद था
और मुजे वो दरवाज़ा
तुम्हारे आने पर जिसे अक्सर बंद कर लेता था मन मेरा…

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बंद कर दिया है
और ख़ुद को ढूँढने की कोशिश है
पता नही मैं कहा हू
कमरे के भीतर या कमरे के बाहर.

1 comment:

डाॅ रामजी गिरि said...

"वो टूटी तस्वीर अब भी वही
पड़ी है .. उसी दीवार पर .. वही दूसरी
कुछ ऐसी ही तस्वीरो के साथ
दीवारो मे सिलन हो रही है अब, फिर भी "…

"खिड़की तो कमरे की आँखे है
कुछ ऐसा ही कहा था तुमने…
कमरे ने अपनी आँखे मूँद ली है अब… "

बहुत ही मर्मस्पर्शी ... लाज़वाब... विरह -वेदना का अद्वितीय चित्रण .