Thursday, November 22, 2007

~~~ वापस धूप ~~~

ये मैंने मेरे जबलपुर- भेडाघाट ट्रेक के दौरान सोची थी.....वह सरस्वती घाट पर जाते हुए रास्ते में कई सारे जुगनू देखे.....पहले लगा की कोई तारा टूट कर गिरा है....फिर बहोत सारे तारे जैसे गिरने लगे....पता चला इतने सारे एक साथ तो टूटेंगे नहीं....फिर ये क्या हों सकता है.......जुगुनू थे सारे....घने अँधेरे में ऐसे चमक रहे थे की तारे जमीन पर आये हों ऐसा लग रहा था......फिर जब घाट पर पहुची और सोच रही थी.....तब...कुछ यू ख्याल आये....उस वक्त नहीं लिख पाई थी...फिर काफी वक्त के बाद कुछ इस तरह ये ख्याल वापस आया........


धूप को नहला दिया
कुछ ओस की बुन्दो ने
अब, धूप सारा दिन इतराएगी ...
चढ़ जाएगी शहर के घरो की छत पर
और पूरा दिन वहाँ मुस्कुराएगी
कूदेगी वो बच्चो की गेंद के साथ
और जाके किसी पत्ते के कान मे कुछ फुसफुसाएगी
खिड़की पर गिरे परदो को लात मार के हटाएगी
और शान से घरमे राजा की तरह दाख़िल हो जाएगी ...

फिर कोई ओस देखेगी कोई भीगी आंखमे
चुपके से पुरानी याद बनकर धूप भी वहाँ चमक जाएगी
अजब है धूप,ज़िद्दी है थोड़ी
सूरज के साथ हरदम, हरकही आ ही जाएगी ...

सन्नाटे मे कोयल की गूँज बनकर
कुछ बोल जाएगी, समझ सको जो तुम
ओस मे धुली नाज़ुक धूप
दोपहर तक ख़ुशी से फूली ना समाएगी ...

शाम को किसीके घर पर वापस आने के
इंतज़ार मे पसरी हुई आँखोमे ठहर जाएगी ...
मंदिर की आरती मे धूप, थोड़ा सा
जल भी जाएगी

धूप कुछ, थोड़ा सहम जाएगी
बिखर जाएगी, उससे पहले ख़ुद को फिर चमकाएगी
जाते जाते आसमा को खींच कर ले आएगी
नदी के किसी घाट पर, छोटे छोटे हज़ारो जुगनू बनाकर
तारे ज़मीन पर ले आएगी
धूप, सूरज के साथ फिर एक सुबह वापस आ जाएगी ...

Friday, September 21, 2007

~~~ कमरा ~~~

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बँध कर दिया

वो कमरा … जिसकी चार दीवारे थी
हर दीवार तुमको प्यारी थी

कमरे मे सामने की दीवार पर
बहोत सारी तस्वीरे लगाई है
पिछले साल ज़िद करके
जाके खिंच्वाई थी शहर के अच्छे से स्टूडीओमे
नदी के किनारो का कोई सीन था पीछे
और “ मैं तुम्हारा किनारा” कहेके
तुमने हाथ पकड़ा था मेरा तस्वीर मे
वो पल वहा क़ैद है
पिछली बार मिले थे तो तुम्ही से
दीवार पर से वो तस्वीर गिर गई थी
काँच टूट कर जैसे तस्वीर मे भी चुभ
गया था … कुछ ख़ून – सा बहा था शायद …
वो टूटी तस्वीर अब भी वही
पड़ी है .. उसी दीवार पर .. वही दूसरी
कुछ ऐसी ही तस्वीरो के साथ
दीवारो मे सिलन हो रही है अब, फिर भी …

ठीक उसके
बाजू वाली दीवार पर
एक खिड़की हुआ करती थी
तुम आते और खड़े रहते
खिड़की के पास
कभी सूरज को वही से
चाय के लिए पूछा था
तुमने, कभी गुलमहॉर के
फूलो का लाल रंग
वही शरमाया था गालो पर
और कभी रात भर वही
खड़े रहे थे मेरी बाहो के सहारे .. चाँद को देखते हुए..
खिड़की तो कमरे की आँखे है
कुछ ऐसा ही कहा था तुमने…
कमरे ने अपनी आँखे मूँद ली है अब…

खिड़की के सामने वाली दीवार पर
एक बिस्तर, एक मेज़ पड़ा है
सफ़ेद रंग की चादर आज भी
बिछी रहती है बिना कोई सिलवट के
और मेज़ पर पड़े रहते है
लाल गुलाब के कुछ फूल
-सूखे से… सुख ही गये है बिल्कुल
मैने फिर कभी फेंका नही
ये सोचकर की तुम आओगे जब,
बदल ही लोगे – हर वक़्त की तरह…
शायद, अब तुम ना आओ तो
ये फूल तो रहेंगे….सूखे ही सही…

और आख़री दीवार की जिसमे
दरवाज़ा था … जहा से तुम आते थे
जाते थे… कभी दरवाज़े पर खड़े खड़े ही
मुजे पुकारते थे… मेरा नाम लेकर
तुम्हे मेरा कमरा पसंद था
और मुजे वो दरवाज़ा
तुम्हारे आने पर जिसे अक्सर बंद कर लेता था मन मेरा…

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बंद कर दिया है
और ख़ुद को ढूँढने की कोशिश है
पता नही मैं कहा हू
कमरे के भीतर या कमरे के बाहर.

~~~ कोई अजीब बात ~~~

कोई बात
अब तुमसे कहने की,
करने की बाक़ी नही
कितनी अजीब बात है !

जिस मेज़ पर तुम
हर बार आकर बैठ जाते थे
मेरी बिखरी सारी चीज़ो को
हटाकर, कोई गीत गुनगुनाते हुए ...
आज भी,
जाने कितनी बाते बिखरी
पड़ी है … अब कोई समेट-ता
नही …
ज़िंदगी भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

सारे शिकवे, सारे गिले
छोड़कर मिलते थे तुम,
सारी दीवारे तोड़कर,
सारे रिश्ते छोड़कर मिलते थे तुम
अब क्यू …
इंतज़ार है मेरी दीवारो को,
अब कोई दीवार आके उठाता
नही …
हस्ती भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

तुम लेकर आते थे
कुछ काग़ज़ …
मुजे देने के बजाए
बाते किया करते थे
रोज़ मिला करते थे
कभी दिए नही थे वो काग़ज़ …
जाते वक़्त तुम दे गये थे …
मैं ढुँदती रहती हू
कोरे काग़ज़ो मे, शायद लिख दी हो
तुमने,
कोई बात …


कितनी अजीब बात है.

Sunday, September 16, 2007

~~~ तीन अकेले ख्वाब ~~~

जले हुए पन्नो सा जीना -
पहेली बारिश के बाद
गीली सुखी कोई किताब
याद दिला जाती है
की सुर्ख़ मौसम भी
अक्सर बदल जाते है
हल्की सी बारिश की बौछारो से.

टपकती रहती है रात -
दिन के उजालो मे जिसे
छिपा छिपा के रखते है
वो लम्हे अंधेरो के आगोश मे
मिलते ही बिखर जाते है
दिन उसके बाद उगता नही
रात फिर कभी आगे बढ़ती नही.

लकीरो से गुम हो जाते है नाम -
कुछ लोग मिल जाते है
मिलो उससे पेहले ही
बिछड़ भी जाते है
कुछ पल साल बन कर
हमसे पिछड़ जाते है
उम्र ढलती रहती है सालो की पल भरमे
- बाक़ी तो कुछ बदलता कहा है ?

~~~ एक अधूरी बात … ~~~

एक अधूरी बात …

मैं बस यही हू
जहा
बरसो पेहले छोड़के
गए थे तुम
खड़ी हू अब जैसे
सदियोसे ….
बर्फ़सी ठंडी हो जाती हू
कोई
छुए तो जल-सा जाता है
कुछ ऐसे रंग बदल जाती हूँ ….
फिर कोई तस्वीर मे
साया बनके
लहरा जाती हू …. या फिर
तुम्हारी आहट से
ख़ुद ही सिमट आती हू
बिखरती रहती हू
हवाओमे
कभी, ख़ुश्बू की तरह …
और कभी,
किसी तारे के साथ
मैं भी
टूट जाती हू ….
अमानत हो जैसे कोई
ना जीती हू
ना मर पाती हू
जाने कौन सी वजह है –
नही कोई इंतज़ार
और
नही है किया कोई वादा
फिर भी
जिए जाती हू
अंजानी सी बात है कोई
समज नही
पाती हूँ …
बस, इतना जानती हू
की तुमने कहा था …
तुम मेरा इंतज़ार करो
वो मुजे अच्छा लगता है !
और बस मैं –

~~~ कोई अजीब बात ~~~

कोई बात
अब तुमसे कहने की,
करने की बाक़ी नही
कितनी अजीब बात है !

जिस मेज़ पर तुम
हर बार आकर बैठ जाते थे
मेरी बिखरी सारी चीज़ो को
हटाकर, कोई गीत गुनगुनाते हुए ...
आज भी,
जाने कितनी बाते बिखरी
पड़ी है … अब कोई समेट-ता
नही …
ज़िंदगी भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

सारे शिकवे, सारे गिले
छोड़कर मिलते थे तुम,
सारी दीवारे तोड़कर,
सारे रिश्ते छोड़कर मिलते थे तुम
अब क्यू …
इंतज़ार है मेरी दीवारो को,
अब कोई दीवार आके उठाता
नही …
हस्ती भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

तुम लेकर आते थे
कुछ काग़ज़ …
मुजे देने के बजाए
बाते किया करते थे
रोज़ मिला करते थे
कभी दिए नही थे वो काग़ज़ …
जाते वक़्त तुम दे गये थे …
मैं ढुँदती रहती हू
कोरे काग़ज़ो मे, शायद लिख दी हो
तुमने,
कोई बात …


कितनी अजीब बात है.

~~~ मेरा कोरा काग़ज़ ~~~

एक बार लिखा था
तुम्हारा नाम
समंदर के किनारे जाकर
गीली गीली भीगी भीगी नर्म रेत पर

सोचा था यही पर लिख देती हू
मैं ही पढ़ लूंगी उसे
कही ओर लिखूँगी तो तुम्हारा नाम
रुसवा हो जाता ना!

एक दफ़ा कवितामे अपना नाम पढ़के
कैसे तुम गभराए थे
दुनिया की परवा करके
कैसे तुम शरमाये थे

पर मेरे लिए तुम्हारा नाम
-जैसे सिर्फ़ नाम नही, बंदगी है
और तुम हो की काग़ज़ पे लिखने
से भी रुसवा हो जाते हो!!!

अब पूरा समंदर का किनारा
मेरा काग़ज़ है कोरा कोरा
मैं लिखती रहती हू नाम तुम्हारा
और समंदर बस पढ़ता ही जाता है

हर बार लिखती हू
तुम्हारा नाम
समंदर के किनारे जाकर
गीली गीली भीगी भीगी नर्म रेत पर

~~~ BACK TO SQUARE ONE… ~~~

धूप से हलके, हवा से पतले
पानी से उजले, कुछ ख्वाब तेरे
आते है, चले जाते है
रोशनी सी छा जाती है
पल भर के लिए…
मुस्कान जगा जाती है
पल भर के लिए…

पल भर के लिए
भूल जाते है सारे शिकवे
सारे गिले धूल जाते है
खो जाता है मन मेरा
मेरा कहा अब वो…
जैसे अब कहेती हू तुम्हारे लिए
मेरा कहा अब वो…

मेरा कहा अब वो
वो रात का आँचल, वो आँख का बादल
वो लब तेरे चंचल, वो सांसो की हलचल
सब जो मेरा था, अब वो तेरा है
तू भी तो अब … तेरा हुआ..
क्या था जो दे सकु, तुम्ही को दे दिया तुम्हे
तू भी तो अब …तेरा हुआ…

तू भी तो अब…तेरा हुआ
मेरा पास रहा क्या बाक़ी
कुछ ख्वाब तेरे, कुछ यादो की ज़ांकी
आँचल मे छोड़ गया अपने लब्ज़ो को
धूप से हल्के, हवा से पत्ले
कुछ ख्वाब तेरे, आते है, चले जाते है
धूप से हल्के, हवा से पत्ले..

~~~ कमरा ~~~

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बँध कर दिया

वो कमरा … जिसकी चार दीवारे थी
हर दीवार तुमको प्यारी थी

कमरे मे सामने की दीवार पर
बहोत सारी तस्वीरे लगाई है
पिछले साल ज़िद करके
जाके खिंच्वाई थी शहर के अच्छे से स्टूडीओमे
नदी के किनारो का कोई सीन था पीछे
और “ मैं तुम्हारा किनारा” कहेके
तुमने हाथ पकड़ा था मेरे तस्वीर मे
वो पल वहा क़ैद है
पिछली बार मिले थे तो तुम्ही से
दीवार पर से वो तस्वीर गिर गई थी
काँच टूट कर जैसे तस्वीर मे भी चुभ
गया था … कुछ ख़ून – सा बहा था शायद …
वो टूटी तस्वीर अब भी वही
पड़ी है .. उसी दीवार पर .. वही दूसरी
कुछ ऐसी ही तस्वीरो के साथ
दीवारो मे सिलन हो रही है अब, फिर भी …

ठीक उसके
बाजू वाली दीवार पर
एक खिड़की हुआ करती थी
तुम आते और खड़े रहते
खिड़की के पास
कभी सूरज को वही से
चाय के लिए पूछा था
तुमने, कभी गुलमहॉर के
फूलो का लाल रंग
वही शरमाया था गालो पर
और कभी रात भर वही
खड़े रहे थे मेरी बाहो के सहारे .. चाँद को देखते हुए..
खिड़की तो कमरे की आँखे है
कुछ ऐसा ही कहा था तुमने…
कमरे ने अपनी आँखे मूँद ली है अब…

खिड़की के सामने वाली दीवार पर
एक बिस्तर, एक मेज़ पड़ा है
सफ़ेद रंग की चादर आज भी
बिछी रहती है बिना कोई सिलवट के
और मेज़ पर पड़े रहते है
लाल गुलाब के कुछ फूल
-सूखे से… सुख ही गये है बिल्कुल
मैने फिर कभी फेंका नही
ये सोचकर की तुम आओगे जब,
बदल ही लोगे – हर वक़्त की तरह…
शायद, अब तुम ना आओ तो
ये फूल तो रहेंगे….सूखे ही सही…

और आख़री दीवार की जिसमे
दरवाज़ा था … जहा से तुम आते थे
जाते थे… कभी दरवाज़े पर खड़े खड़े ही
मुजे पुकारते थे… मेरा नाम लेकर
तुम्हे मेरे कमरा पसंद था
और मुजे वो दरवाज़ा
तुम्हारे आने पर जिसे अक्सर बंद कर लेता था मन मेरा…

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बंद कर दिया है
और ख़ुद को ढूँढने की कोशिश है
पता नही मैं कहा हू
कमरे के भीतर या कमरे के बाहर.

~~~ Transformation ~~~

हरे हरे पत्तोसे लिपटी हुई धूप
चमक उठती है,नन्ही सी
गुड़िया की आँखोमे जैसे
चमक उठता है सूरज कोई,
तमन्ना का कोई खिलौना पाकर.

ना धूप रहती है सदा,
ना सूरज की चमक
और फिर
गुड़िया भी तो गुड़िया
कहा रह पाती है हमेशा?


खिलौने बस, बदल जाते है…..

~~~ खुदा भी बेईमान होगा ~~~

नीला-पीला धुला - खुला आसमान होगा
खुदा के पास और क्या सामान होगा

बुलाना होगा ख़त भेजकर अब उसको भी
कल से यार भी तेरा मेहमान होगा

साथ लेकर चलना तू एक रोशनी का दिया
अब के सफ़र मे रास्ता भी खुदसे अनजान होगा

दिया जब भी देना था नाप तोल के दिया
पता नही था यू खुदा भी बेईमान होगा

यू ही जाके बैठा है मंदिर मस्जिदो मे
शायद खुदा भी ना जाने कोई इन्सान होगा

आ गया है बच्चो की ज़िलमिलाती हसी मे
उसके दिलमे भी कोई अन्छुआ अरमान होगा

~~~ छाता ~~~

कल काफ़ी दीनो के बाद
एक भूरा-सा, चंचल
बादल पिघल रहा था…
अपनी मस्ती मे ज़ुमक़र
आने जाने वाले हर शख्श,
हर रास्ते, हर राह,
हर मकान, हर पत्ते
को भिगो रहा था…
मस्ती चढ़ि थी
उसे, बुन्दो की, बौछारो की,
जाने क्या पिलाया था
धूपने उसे….अपनी
सत-रंगी हंसी बिखेर रहा था..
आसमान भी उसको
अपनी पनाहो मे पाकर
कुछ गिला-सा हो रहा था…

अचानक थम गया बादल..
कोई बेचारा – सा
बादल से जाने रूठा - सा
बारिश से छूट रहा था
बादल आया था
मदमस्त होली खेलने
और, वो छुप रहा था …
बादल सा भूरा
उस, बेशरम ने, एक
छाता खोल दिया था
और
बादल को STATUE उसने
जैसे बोल दिया था !!!

~~~ धूप ~~~

मुंडेर पर आकर धूप
बैठती है, सुनती है
सूरज की सारी बाते
सूरज की दोस्त हों
जैसे, आ जाती है
धूप…।रोज़……सूरज के साथ साथ

छिप जाती है
घने पेडो के पत्तो के भीतर
तालाब के ठहरे पानी पर
चिलमीलाती है धूप…
छोड़कर जाना चाहो तो
छांव के सर चढ़ जाती है
सूरज की उम्र से बढ़कर
तो उम्र नही होगी उसकी
रोज़ ही आती है……।

रुठ जाती है जब
सूरज से मिलने कभी
बादल आ जाते है
छुप जाती है
नज़र नही आती पर
मेहएसूस कराती है…मैं धुप

फिर ख़ुद ही मान जाती है
कभी बादल के बरसने पर
तोहफ़े मे मिली पानी की
बूँदसे ख़ुश होकर
खिलखिलाती है
इंद्रधनुषी हंसी देते हुए…धूप।

~~~ हवाए ~~~

सरहद के उस पार से
आती है सौंधी सी हवाए
शायद वहा पानी बरसा होगा
वहा भी कोई मुज-सा तरसा होगा.
लहेरो ने कांधा दिया होगा
और कुछ फूलोने खुस्बू,
चिड़ियोने दी होगी अपनी आवाज़
और किरनो ने अपनी चलने की धार..
हवाए…

पास आके थम सी गई है
सामने खड़ी है, पुराने
किसी दोस्त की याद लेकर
वही ले आई है साथ मे,
सदके मे भेजी है कुछ बाते भी
शायद….

ज़मीन पर कोई रेखा तो खिंची नही
कही कोई दीवार उसे दिखी नही
मैं देख सकती हू उसे
मेहसूस कर सकती हू उसे
बस छुने भर की देरी है…
पल भर की बात है
फिर वो सन्देसे, वो बाते
मेरे दोस्त की, सिर्फ़ मेरी होगी
वो हवाए मेरी सहेली होगी…

पर आज के अख़बार मे एक ख़बर आई है
आज से उस ओर की हर हवा पर भी टॅक्स लगेगा…

~~~ ईमानदारी!!?? ~~~

एक दीवार हमेशा
बनी रही
दोनो के बिचमे

माहिर थे दोनो
अपने हिस्से का काम करने मे

एक इंट इसने उठाई
दूसरी उसने-
एक बार उसने
मिट्टी डाली
एक बार इसने.
पानी भी
डालने मे कोई कसर
नही छोड़ी थी दोनो ने –
दीवार को पक्की बनाने मे

माहिर थे ना दोनो
अपने हिस्से का
काम करने मे.

किसी ने जो
कोशिश की होती
एक बार
ही सही
इंट रखने से
पहेले सिर्फ़
उस तरफ़ जाने की-

शायद ,
शायद ही सही
दीवार बीच मे ना होती.

दीवार के एक
तरफ़ दुनिया होती-
दूसरी तरफ़
सिर्फ़ इस ओर उस होते-
एक साथ.

पर
दोनो ने अपना अपना कम
पूरी ईमानदारी से किया था !?

~~~ दो दोस्त ~~~

एक ज़माना
था
किनारे भी समुंदर के साथ साथ
चला करते थे
क़दम से क़दम मिला कर
कुछ भी हो जाए
वो टूटते नही थे
चाहे समुंदर कितना
गुरराए, कभी खुदसे छूटते नही थे

फिर एक दिन जाने क्या
ऐसी वैसी ही कोई
बात थी शायद
उबल पड़ा समुंदर किनारो पर
ऐसा वैसा कुछ बोल दिया
बेचारे! किनारे
सहम के रहे गये
कुछ ना बोले, कुछ ना बोल पाए

फिर वापस आया समुंदर
जाने कितनी मन्न्ते की
दिल टूटा था किनारे का
छूट गये थे बस उनके निशा
अब रोज़ बुलाता रहता है समुंदर
दूर जाता है पास आता है समुंदर
जाने कितनी बाते करता है समुंदर
कितने आसू रोता है समुंदर
पर किनारे बस-
चुपचाप है सहमे हुए
चलते नही है साथ
थम गये है सदा के लिए.

~~~ कुछ त्रिवेणी ~~~

शर्मसे फिर लाल लाल हो गई आशिक़ि उसकी
पन्नोसे गिरा जब सुर्ख़ लाल गुलाब का पत्ता

कितने मौसम छिपा के रखे है आज भी उसने!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मौसम-ए-उम्र भी ढल जाएँगे एक दिन
रहेने ही दिजे रवायते ख़ुदको हसी रखने की

अक्सर आईने अपनी सूरते बदल ही लेते है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इतनी रोशनी फिर ये अंधेरा कैसा है?
ज़ार ज़ार हो जौ मैं ऐसे वो खटकता है

सूरज दीवार पर टॅंगी तस्वीर मे चमक रहा था
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
लिपट जाती है तेरी याद हवाओके साथ
फ़िरसे आहेसास दिलाते मेरे ज़िंदा होनेका

एक कमरे मे बंद करके रख आउ हवाओ को
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सोचा था अगली बारिश पर तुम्हारे साथ भिगेंगे
काग़ज़ की नाव मे बैठकर कुछ दूर तक जाएँगे

लिखा था जिसमे वो काग़ज़ ही तुम्हे कभी दे नही पाया मैं
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बेवजह उड़ते रहते है परदे मेरी खिड़की पर
हवा आया जाया करती है, ज़ान्क्ति है कभी कभी

बचपन मे हम भी तो यू ही मिला करते थे अक्सर
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पूरे कमरे मे एक ही चाँद था
मैने आँखो मे समाकर बंद कर लिया

अब चमकता है मेरे कपोल पर चाँद बन कर
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बहोत बारिश हुई थी पिछले साल
इतना गिला हुआ सूरज की सर्दी हो गई

दर के मारे सूरज ने रेनकोट पहन लिया अब की बार
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सियाही के भी रंग बदल जाते है
साल अक्सर पन्नो को फाड़कर निकल आते है

कुछ पन्नो को लॅमिनेट करवाना चाहता हू
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सुबह सवेरे बाग़ीचे मे कुछ बादल खेलने निकले
माली आया और तेज़ धूप मे सारे छुप गये

जाने बारिश कौन से बादल के साथ छुपी होगी?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

आईना दिखता है मुजे मुज से बेहतर
तेरी आँखो मे कुछ और नज़र आता हू मैं

कुछ और ग़लतफ़हेमी तेरे पास आकर पता हू मैं
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
तारे चल पड़े है आज काज़लसी रात मे
बादलोने कुछ जश्न मनाया लगता है

मिला नही पर मुजको इन्विटेशन तो भेजा होगा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
गले के नीचे निवाला उतरता नही
शायद नामक कम था!

शायद भूख कम थी
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बेताल्लुक सी ही कुछ बातें होंगी
वस्ल-ए-यार पे और क्या सूरत होगी

कभी शर्मसे लाल लाल, कभी हयासे पानी पानी!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
रातभर ज़मीन पर बूँदे गिरती रही
फूलोने समेट लिया, धरती मे समा गई

ओस बनकर टपका था खुदा की आँखो से पानी
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ बादल लड़ पड़े आपसमे
हर गये वो फूट फूट कर रोए

बारिशके पानी मे भी ख़ाराश थी आज
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ सालो से गली के नुक्कड़ पर बैठता है वो
जाने कितने लोगो के सपनो के महल बुनता है वो

आज भी उस ज्योतिश का पता पुरानी खोली नो. 840 ही है!!

~~~ बहोत बरसो बाद…आज ~~~~

अजब-सी दस्ता हो गई है आज
तुजे ढूंढते ढूंढते ख़ुद को मिल गई आज

हर गली, हर मोड़ , हर शहर ढूँढा तुजे
और तेरी याद मेरे घरमे मुजे मिल गई आज

नाम बदल के रख लिया था मैने अपना
नाम के पीछे तेरी निशानी मुजको मिल गई आज

जब ढूँढा, तुजे ढूँढा, ऐसे ढूँढा
मेरे भीतर, कही मेरी मंज़िल मुजे मिल गई आज

ये खुदसे मिलने की ख़ुशी इतनी
की ढूंढते ढूंढते ही मैं भी खिल गई आज.

~~~ सुधार दिया था ~~~

कल रात से चाँद को उधार लिया था
और साथ मैं तारो का थोड़ा सा खुमार पिया था

हाथो की लकीरे एक-सी हो गई अपनी
कुछ इस तरह तुम पर ऐतबार किया था

बस एक पल का ही साथ दिया था तुमने
बस उस पल को मैने बेसुमार जिया था

तुम मूड गये अगले ही मोड़ पर जाने क्यू
हम ने तो सीधे रास्तो पर भी पुकार लिया था

लिखते रहे हम अपना नाम तेरे आगे - पीछे
कितनी आसानी से तुमने वो सुधार दिया था

~~~ बस …मैं ~~~

ख़ुद से किए थे कुछ वादे; तोड़ रही हू मैं
तुजसे जुड़े सारे नाते; एक एक कर तोड़ रही हू मैं

गर साथ चलना अब गवारा नही तुजे
सारे मेरे रास्ते उस और मोड़ रही हू मैं

कल चाँद मेरी हथेली मे था तेरा नाम बनके
आज चाँद को अपने आसमा के लिए छोड़ रही हू मैं

क्या हुआ जो एक रिश्ता भी निभा ना सके
अशक़, याद, रात, तारे, किन किनसे नाते जोड़ रही हू मैं

ख़ुदको छोड़कर तुम्हारे पास आई थी एक दिन
कौन-सी दिशा, कौन से रास्ते, बस दौड़ रही हू मैं

~~~ बूँद ~~~

एक बूँद की कहानी
आँखो मे आँसू,
समुंदर मे पानी

हसी के पीछे पीछे
दबे पाव आती है
और फिर कभी
आँखो से छलकाती है
आँखो से छलकते पानी की हम ने कहा क़ीमत जानी
एक बूँद की कहानी
आँखो मे आँसू,
समुंदर मे पानी

कभी अपनो की डाँट मे
कभी पराए की छांट मे
चुपके से आते है
चुपके से जाते है
आने-जाने की राहोमे कितने दरिया तूफ़नी
एक बूँद की कहानी
आँखो मे आँसू,
समुंदर मे पानी

~~~ एक नये सपने की खोज मैं…. ~~~

देखने के लिए एक सपना ढूँढ रही हू
जीने के लिए तेरा बहाना ढूँढ रही हू
जो साथ मेरे हर कोई गा सके
एक ऐसा तराना ढूँढ रही हू

कल पत्तो ने हसके बात कही थी ज़िंदगी की
आज वो पत्ते नही रहे
ज़िंदगी रुकी नही, ज़िंदगी थमी भी नही
अब नये पत्तो का फ़साना ढूँढ रही हू

जो बनकर बिगड़ जाता है
जो पास आकर बिछड़ जाता है
वो अपना नही होता, वो पराया भी नही होता
वो मेरे साथ मेरा था वो ज़माना ढूँढ रही हू

कुछ वादे किए थे बिन कहे
कुछ कसमे ली थी बिन सुने
जो कहा नही होता, वो सुना नही जाता
जागती आँखो से अब ना जाने क्या सपना ढूँढ रही हू

~~~ दुआ ~~~

जब भी आती है धूप मेरे आँगन मैं
तेरी याद साथ ले आती है

पश्चिमसे आनेवाली वो हवा भी
हर बार वो खिड़की खोल जाती है..

अबकी बार जो
बरसात बरसेगी; उसमे पानी नम होगा
और
हिमालय पर भी इस बार
कुछ ज़्यादा ही बर्फ़ की चादर छाएगी
फूल भी कुछ ज़्यादा ही महेकेंगे अब के बरस
और
आसमान मे कुछ और गहेरी रंगोली रचाएगी.

क्या हुआ जो वक़्त
पत्थर बनके किस्मत पर लगा हो

क्या हुआ जो माँगा
वो कुछ इस तरहसे मिला हो
की
मंदिर मैं जाकर फिर
कुछ माँगने की ज़रूरत ही ना रहे

अपने लिए माँगकर देखा था
सालो-भर
एक बार तेरे लिए माँगा-
और दुआ कबुल हो गई-

मेरे हिस्से - बस
हरसू बिखरी
तेरी याद ही रह गई -

~~~ .....बिखरती रहती हू ~~~

बेवजह सारा शहर छानती रहती हू
खुदसे बेख़बर, तुम्हे ढूँढती रहती हू.

बदल के रख लिया है मेरा नाम लोगोने
कुछ इस तरह तुम्हे पुकारती रहती हू

तेरी हल्की सी परछाई भी नज़र आ जाए
मैं चाँद की तरह निखरती रहती हू

तुमने जो समेटकर रख दिया था मुजमे
उसे ख़ुश्बू की तरह बिखेरती रहती हू

जब नही मिलते हो मुजे सपनो मैं भी तुम
मैं टुकड़ो-टूड़को मे ख़ुद ही बिखरती रहती हू.

Thursday, August 23, 2007

~~~~ चाँद मेरा… ~~~

ख़ामोश रहता है चाँद
तारो भरी रात मे भी
आता है कुछ कहेने
पर यू ही चला
जाता है, बिना कुछ
लिखे, बिना कुछ कहे.

लगता है कहेने के
लिए, कोई लब्ज़ ही
नही उसके पास, पर
बाते तो हज़ार होगी!

रोज़ आता है, बस
एक दिन जाने कहा
चला जाता है, इतने
सारे तारो को छोड़कर
बिना कुछ कहे…

जाकता है कभी
अभ्र मे बिखरे कुछ
बादलोके पीछे से
कभी कोई सितारे
के आगे चुपचाप
खड़ा हो जाता है
बिना कुछ कहे…

जाने क्या कहेना
है उसे, कह ही नही पता
चाँद है फिर भी,
चुपचाप सा रहता है

कल मिल गया
मुजे सुबह सवेरे
हल्का सा धुला हुआ
ओस मे भीगके
कुछ नीला हुआ
सूरज की रोशनी मे
कुछ शरमाया हुआ

पूछ लिया मैने
उसके जाने से पहेले, जल्द ही
क्या बात है जो
बता नही पाता वो,
मुजे ही कहे दे, शायद,

कुछ नही कहा, बस मुस्कुराया
अपनी चाँदनी बिखेर दी मुज पर
और बिखेरते हुए – बस – चला गया……..

~~~ एक सवाल ~~~

सफ़ेद
तकिये पर पड़ा
सूखा लाल गुलाब
(रंग फीका तो नही पड़ा?)
अपने आपमे
जाने कितनी ख़ुश्बू
(शायद तुम्हारी भी!)
छिपाए
इंतज़ार मे है
की कब मैं उठाऊ
और रख दू
वापस
उन खतो के बीच
जो लिखे थे तुम्हे
(और कभी भेजे नही)
और
मैं सोचती हू
अब की बार
ख़त के साथ एक दिन
कुछ ताज़ा गुलाब
भी भिजवा दूँगी तुम्हे
तुम्ही बता दो, मर्ज़ी तुम्हारी
क्या भिजवा दू
गुलाब : लाल या
सफ़ेद?

~~~ रेत ~~~

पैरो के नीचे से सरकती रेत
याद दिलाती है
मेरे हाथोमे कुछ भी
नही
मेरा वजूद
खड़े रहेने के लिए
भी
रेत का मोहताज है

~~~ तेरा नाम ~~~

ओस पे लिख के तेरा नाम
बिखेर देती हू; फिर
ढूँढती रहती हू मैं उसे
समुंदर की गहराई मे.
कभी वो मिल जाता है
बादल के बरसते पानी मे.
कभी बहे निकलता है
मेरे शब्दो की ज़ुबानी मे.
मैं गुनगुना लेती हू उसे
जिसे मैं ही सुन सकती हू.
फिर भी गुनाह-सा लगता है
तेरा नाम कभी-कभी
मुजे मेरा नाम-सा लगता है
ओर कभी ये भी लगता है
की तुम्हारे नाम सा हसीं-
कोई और नाम ही नही
मेरे नाम को उससे जोड़ती रहती हू ऐसे,
जैसे मुझे और कोई काम ही नही.
बस...ओस पे लिखती रहती हू तेरा नाम.

~~~ सूरज ~~~

पता नही क्यू, हर रोज़
सूरज
क्या ढूँढने निकलता है
धरती के इस छोर से
उस और तक
ना जाने क्या ढूंढता है
रोज़ रोज़ आता है
रोज़ चला जाता है
ना थकता है
ना रुकता है
ना रोता है ना सोता है
ना याद, ना फ़रियाद करता है
बस आता है और
चला जाता है
जैसे किसीको
वचन दिया हो
इस जगह, इस वक़्त
तुम्हे हर वक़्त मिलूंगा..
ओर बस आता है
धूप बाँटता है
चला जाता है
कल आने दो सूरज को
कल तो पूछ ही लूंगी
कौन है जिसकी
राहों मैं वो
इतनी पलके बीछाता है
इतने साल हो गये फिरभी
कभी टूटा नही
ऐसा दिया वचन की
फिर कभी सूरज
रूठा नही
इतनी चाहत किससे है
इतनी चाहत कैसे है
जब भी आता है
ज़िंदगी बनाता है
ओर चला जाता है
जाने क्यू सूरज
ऐसे वादा निभाता है!

~~~ लड़ाई !!! ~~~

एक दिन
चाँद लड़
पड़ा
खेलते-खेलते
तारो के
साथ.
रूठे हुए
छोटे बच्चे-सा
मुह बनाके, वो
आ गया
मेरे कमरे मैं
खिड़कीसे.
पूरी रात
फ़रियाद करता रहा
ओर
याद करता
रहा
कैसे तारोने
उसे दौड़ाया
पूरे आकाश मे
खेलते-खेलते.
मैने बहुत समज़ाया
तब जाके माना.
थोड़ा थोड़ा
फ़िरसे
खेलने लगा हर रोज़
तारो के साथ.
पर
अब उसे पता था
की
कभी कभी तारो को भी
ख़ुद को ढूँढने का
मौक़ा
देना है
इसी लिए
तबसे
अब वो एक
पूरी रात
मेरे साथ होता है!!!

Friday, August 3, 2007

~~~ सूरज का चाँद ~~~

सूरज को मन किया
मिलने से चाँद को
ओर बस
वो निकल पड़ा
चलता रहा
बस चलता रहा।
एक पल भी नही रहा खड़ा.

चाँद तो बस
बेख़बर-सा
सूरज से और
खुदसे
रात के आगोशमे
तारो के साथ
बतियाने मे लगा था.
उसे क्या पता
सूरज उसके पास
आकर मिलना चाहता है उसे
-पल भर.

चाँद से मिलने की
ख़्वाहिश मे
कभी पास
कभी दूर
होता चला
चाँद को रोशन
करता चला
सूरज
चाँद की और बढ़ता चला.

आज
लगता है
चाँद पूरा है
शायद
सूरज ने आज
चाँद को
पा ही लिया
है

ओर फिर भी
चाँद तो बेख़बर
थोड़े तारोके साथ,
सूरज से
रोशन-रोशन.

~~~ बियास के नाम ~~~

ना जाने क्या सोचकर
हर बार
तेरे पास आ जाती हूँ
हर बार
तुजसे बिछड़ते वक़्त
गुमसूम सी हो जाती हूँ
हर बार
तू सीखा जाती है
सबक ज़िंदगी का नया
हर बार
मैं कुछ नया ढंग जीने का पाती हूँ

हर बार
तेरी पायल सी आवाज़
सुनती हू और संभल जाती हूँ
कुछ मुजको भूलने से पहले
ख़ुदको थोड़ा मिल जाती हूँ

हर बार तू सीखा देती है
पाना क्या है और खोना क्या
हर बार-

~~~ 21 वी सदी की लड़की का इंतज़ार ~~~

किसीने
कहा
google
search
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मे
ढूंढो
तो
मिल
जाता

कबसे
तेरा
नाम
डालके
बैठी
हू