Friday, September 21, 2007

~~~ कोई अजीब बात ~~~

कोई बात
अब तुमसे कहने की,
करने की बाक़ी नही
कितनी अजीब बात है !

जिस मेज़ पर तुम
हर बार आकर बैठ जाते थे
मेरी बिखरी सारी चीज़ो को
हटाकर, कोई गीत गुनगुनाते हुए ...
आज भी,
जाने कितनी बाते बिखरी
पड़ी है … अब कोई समेट-ता
नही …
ज़िंदगी भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

सारे शिकवे, सारे गिले
छोड़कर मिलते थे तुम,
सारी दीवारे तोड़कर,
सारे रिश्ते छोड़कर मिलते थे तुम
अब क्यू …
इंतज़ार है मेरी दीवारो को,
अब कोई दीवार आके उठाता
नही …
हस्ती भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

तुम लेकर आते थे
कुछ काग़ज़ …
मुजे देने के बजाए
बाते किया करते थे
रोज़ मिला करते थे
कभी दिए नही थे वो काग़ज़ …
जाते वक़्त तुम दे गये थे …
मैं ढुँदती रहती हू
कोरे काग़ज़ो मे, शायद लिख दी हो
तुमने,
कोई बात …


कितनी अजीब बात है.

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