ये मैंने मेरे जबलपुर- भेडाघाट ट्रेक के दौरान सोची थी.....वह सरस्वती घाट पर जाते हुए रास्ते में कई सारे जुगनू देखे.....पहले लगा की कोई तारा टूट कर गिरा है....फिर बहोत सारे तारे जैसे गिरने लगे....पता चला इतने सारे एक साथ तो टूटेंगे नहीं....फिर ये क्या हों सकता है.......जुगुनू थे सारे....घने अँधेरे में ऐसे चमक रहे थे की तारे जमीन पर आये हों ऐसा लग रहा था......फिर जब घाट पर पहुची और सोच रही थी.....तब...कुछ यू ख्याल आये....उस वक्त नहीं लिख पाई थी...फिर काफी वक्त के बाद कुछ इस तरह ये ख्याल वापस आया........
धूप को नहला दिया
कुछ ओस की बुन्दो ने
अब, धूप सारा दिन इतराएगी ...
चढ़ जाएगी शहर के घरो की छत पर
और पूरा दिन वहाँ मुस्कुराएगी
कूदेगी वो बच्चो की गेंद के साथ
और जाके किसी पत्ते के कान मे कुछ फुसफुसाएगी
खिड़की पर गिरे परदो को लात मार के हटाएगी
और शान से घरमे राजा की तरह दाख़िल हो जाएगी ...
फिर कोई ओस देखेगी कोई भीगी आंखमे
चुपके से पुरानी याद बनकर धूप भी वहाँ चमक जाएगी
अजब है धूप,ज़िद्दी है थोड़ी
सूरज के साथ हरदम, हरकही आ ही जाएगी ...
सन्नाटे मे कोयल की गूँज बनकर
कुछ बोल जाएगी, समझ सको जो तुम
ओस मे धुली नाज़ुक धूप
दोपहर तक ख़ुशी से फूली ना समाएगी ...
शाम को किसीके घर पर वापस आने के
इंतज़ार मे पसरी हुई आँखोमे ठहर जाएगी ...
मंदिर की आरती मे धूप, थोड़ा सा
जल भी जाएगी
धूप कुछ, थोड़ा सहम जाएगी
बिखर जाएगी, उससे पहले ख़ुद को फिर चमकाएगी
जाते जाते आसमा को खींच कर ले आएगी
नदी के किसी घाट पर, छोटे छोटे हज़ारो जुगनू बनाकर
तारे ज़मीन पर ले आएगी
धूप, सूरज के साथ फिर एक सुबह वापस आ जाएगी ...
Thursday, November 22, 2007
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1 comment:
"नदी के किसी घाट पर, छोटे छोटे हज़ारो जुगनू बनाकर
तारे ज़मीन पर ले आएगी
धूप, सूरज के साथ फिर एक सुबह वापस आ जाएगी ..."
बहुत ही सजीव चित्र खीचा है इन पंक्तियों के माध्यम से..धूप और ओस का संबंध खूबसूरत है.
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