Thursday, November 22, 2007

~~~ वापस धूप ~~~

ये मैंने मेरे जबलपुर- भेडाघाट ट्रेक के दौरान सोची थी.....वह सरस्वती घाट पर जाते हुए रास्ते में कई सारे जुगनू देखे.....पहले लगा की कोई तारा टूट कर गिरा है....फिर बहोत सारे तारे जैसे गिरने लगे....पता चला इतने सारे एक साथ तो टूटेंगे नहीं....फिर ये क्या हों सकता है.......जुगुनू थे सारे....घने अँधेरे में ऐसे चमक रहे थे की तारे जमीन पर आये हों ऐसा लग रहा था......फिर जब घाट पर पहुची और सोच रही थी.....तब...कुछ यू ख्याल आये....उस वक्त नहीं लिख पाई थी...फिर काफी वक्त के बाद कुछ इस तरह ये ख्याल वापस आया........


धूप को नहला दिया
कुछ ओस की बुन्दो ने
अब, धूप सारा दिन इतराएगी ...
चढ़ जाएगी शहर के घरो की छत पर
और पूरा दिन वहाँ मुस्कुराएगी
कूदेगी वो बच्चो की गेंद के साथ
और जाके किसी पत्ते के कान मे कुछ फुसफुसाएगी
खिड़की पर गिरे परदो को लात मार के हटाएगी
और शान से घरमे राजा की तरह दाख़िल हो जाएगी ...

फिर कोई ओस देखेगी कोई भीगी आंखमे
चुपके से पुरानी याद बनकर धूप भी वहाँ चमक जाएगी
अजब है धूप,ज़िद्दी है थोड़ी
सूरज के साथ हरदम, हरकही आ ही जाएगी ...

सन्नाटे मे कोयल की गूँज बनकर
कुछ बोल जाएगी, समझ सको जो तुम
ओस मे धुली नाज़ुक धूप
दोपहर तक ख़ुशी से फूली ना समाएगी ...

शाम को किसीके घर पर वापस आने के
इंतज़ार मे पसरी हुई आँखोमे ठहर जाएगी ...
मंदिर की आरती मे धूप, थोड़ा सा
जल भी जाएगी

धूप कुछ, थोड़ा सहम जाएगी
बिखर जाएगी, उससे पहले ख़ुद को फिर चमकाएगी
जाते जाते आसमा को खींच कर ले आएगी
नदी के किसी घाट पर, छोटे छोटे हज़ारो जुगनू बनाकर
तारे ज़मीन पर ले आएगी
धूप, सूरज के साथ फिर एक सुबह वापस आ जाएगी ...

Friday, September 21, 2007

~~~ कमरा ~~~

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बँध कर दिया

वो कमरा … जिसकी चार दीवारे थी
हर दीवार तुमको प्यारी थी

कमरे मे सामने की दीवार पर
बहोत सारी तस्वीरे लगाई है
पिछले साल ज़िद करके
जाके खिंच्वाई थी शहर के अच्छे से स्टूडीओमे
नदी के किनारो का कोई सीन था पीछे
और “ मैं तुम्हारा किनारा” कहेके
तुमने हाथ पकड़ा था मेरा तस्वीर मे
वो पल वहा क़ैद है
पिछली बार मिले थे तो तुम्ही से
दीवार पर से वो तस्वीर गिर गई थी
काँच टूट कर जैसे तस्वीर मे भी चुभ
गया था … कुछ ख़ून – सा बहा था शायद …
वो टूटी तस्वीर अब भी वही
पड़ी है .. उसी दीवार पर .. वही दूसरी
कुछ ऐसी ही तस्वीरो के साथ
दीवारो मे सिलन हो रही है अब, फिर भी …

ठीक उसके
बाजू वाली दीवार पर
एक खिड़की हुआ करती थी
तुम आते और खड़े रहते
खिड़की के पास
कभी सूरज को वही से
चाय के लिए पूछा था
तुमने, कभी गुलमहॉर के
फूलो का लाल रंग
वही शरमाया था गालो पर
और कभी रात भर वही
खड़े रहे थे मेरी बाहो के सहारे .. चाँद को देखते हुए..
खिड़की तो कमरे की आँखे है
कुछ ऐसा ही कहा था तुमने…
कमरे ने अपनी आँखे मूँद ली है अब…

खिड़की के सामने वाली दीवार पर
एक बिस्तर, एक मेज़ पड़ा है
सफ़ेद रंग की चादर आज भी
बिछी रहती है बिना कोई सिलवट के
और मेज़ पर पड़े रहते है
लाल गुलाब के कुछ फूल
-सूखे से… सुख ही गये है बिल्कुल
मैने फिर कभी फेंका नही
ये सोचकर की तुम आओगे जब,
बदल ही लोगे – हर वक़्त की तरह…
शायद, अब तुम ना आओ तो
ये फूल तो रहेंगे….सूखे ही सही…

और आख़री दीवार की जिसमे
दरवाज़ा था … जहा से तुम आते थे
जाते थे… कभी दरवाज़े पर खड़े खड़े ही
मुजे पुकारते थे… मेरा नाम लेकर
तुम्हे मेरा कमरा पसंद था
और मुजे वो दरवाज़ा
तुम्हारे आने पर जिसे अक्सर बंद कर लेता था मन मेरा…

मैने अपने कमरे का
दरवाज़ा बंद कर दिया है
और ख़ुद को ढूँढने की कोशिश है
पता नही मैं कहा हू
कमरे के भीतर या कमरे के बाहर.

~~~ कोई अजीब बात ~~~

कोई बात
अब तुमसे कहने की,
करने की बाक़ी नही
कितनी अजीब बात है !

जिस मेज़ पर तुम
हर बार आकर बैठ जाते थे
मेरी बिखरी सारी चीज़ो को
हटाकर, कोई गीत गुनगुनाते हुए ...
आज भी,
जाने कितनी बाते बिखरी
पड़ी है … अब कोई समेट-ता
नही …
ज़िंदगी भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

सारे शिकवे, सारे गिले
छोड़कर मिलते थे तुम,
सारी दीवारे तोड़कर,
सारे रिश्ते छोड़कर मिलते थे तुम
अब क्यू …
इंतज़ार है मेरी दीवारो को,
अब कोई दीवार आके उठाता
नही …
हस्ती भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

तुम लेकर आते थे
कुछ काग़ज़ …
मुजे देने के बजाए
बाते किया करते थे
रोज़ मिला करते थे
कभी दिए नही थे वो काग़ज़ …
जाते वक़्त तुम दे गये थे …
मैं ढुँदती रहती हू
कोरे काग़ज़ो मे, शायद लिख दी हो
तुमने,
कोई बात …


कितनी अजीब बात है.

Sunday, September 16, 2007

~~~ तीन अकेले ख्वाब ~~~

जले हुए पन्नो सा जीना -
पहेली बारिश के बाद
गीली सुखी कोई किताब
याद दिला जाती है
की सुर्ख़ मौसम भी
अक्सर बदल जाते है
हल्की सी बारिश की बौछारो से.

टपकती रहती है रात -
दिन के उजालो मे जिसे
छिपा छिपा के रखते है
वो लम्हे अंधेरो के आगोश मे
मिलते ही बिखर जाते है
दिन उसके बाद उगता नही
रात फिर कभी आगे बढ़ती नही.

लकीरो से गुम हो जाते है नाम -
कुछ लोग मिल जाते है
मिलो उससे पेहले ही
बिछड़ भी जाते है
कुछ पल साल बन कर
हमसे पिछड़ जाते है
उम्र ढलती रहती है सालो की पल भरमे
- बाक़ी तो कुछ बदलता कहा है ?

~~~ एक अधूरी बात … ~~~

एक अधूरी बात …

मैं बस यही हू
जहा
बरसो पेहले छोड़के
गए थे तुम
खड़ी हू अब जैसे
सदियोसे ….
बर्फ़सी ठंडी हो जाती हू
कोई
छुए तो जल-सा जाता है
कुछ ऐसे रंग बदल जाती हूँ ….
फिर कोई तस्वीर मे
साया बनके
लहरा जाती हू …. या फिर
तुम्हारी आहट से
ख़ुद ही सिमट आती हू
बिखरती रहती हू
हवाओमे
कभी, ख़ुश्बू की तरह …
और कभी,
किसी तारे के साथ
मैं भी
टूट जाती हू ….
अमानत हो जैसे कोई
ना जीती हू
ना मर पाती हू
जाने कौन सी वजह है –
नही कोई इंतज़ार
और
नही है किया कोई वादा
फिर भी
जिए जाती हू
अंजानी सी बात है कोई
समज नही
पाती हूँ …
बस, इतना जानती हू
की तुमने कहा था …
तुम मेरा इंतज़ार करो
वो मुजे अच्छा लगता है !
और बस मैं –

~~~ कोई अजीब बात ~~~

कोई बात
अब तुमसे कहने की,
करने की बाक़ी नही
कितनी अजीब बात है !

जिस मेज़ पर तुम
हर बार आकर बैठ जाते थे
मेरी बिखरी सारी चीज़ो को
हटाकर, कोई गीत गुनगुनाते हुए ...
आज भी,
जाने कितनी बाते बिखरी
पड़ी है … अब कोई समेट-ता
नही …
ज़िंदगी भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

सारे शिकवे, सारे गिले
छोड़कर मिलते थे तुम,
सारी दीवारे तोड़कर,
सारे रिश्ते छोड़कर मिलते थे तुम
अब क्यू …
इंतज़ार है मेरी दीवारो को,
अब कोई दीवार आके उठाता
नही …
हस्ती भी … मेरी … यू ही …
कितनी अजीब बात है …

तुम लेकर आते थे
कुछ काग़ज़ …
मुजे देने के बजाए
बाते किया करते थे
रोज़ मिला करते थे
कभी दिए नही थे वो काग़ज़ …
जाते वक़्त तुम दे गये थे …
मैं ढुँदती रहती हू
कोरे काग़ज़ो मे, शायद लिख दी हो
तुमने,
कोई बात …


कितनी अजीब बात है.

~~~ मेरा कोरा काग़ज़ ~~~

एक बार लिखा था
तुम्हारा नाम
समंदर के किनारे जाकर
गीली गीली भीगी भीगी नर्म रेत पर

सोचा था यही पर लिख देती हू
मैं ही पढ़ लूंगी उसे
कही ओर लिखूँगी तो तुम्हारा नाम
रुसवा हो जाता ना!

एक दफ़ा कवितामे अपना नाम पढ़के
कैसे तुम गभराए थे
दुनिया की परवा करके
कैसे तुम शरमाये थे

पर मेरे लिए तुम्हारा नाम
-जैसे सिर्फ़ नाम नही, बंदगी है
और तुम हो की काग़ज़ पे लिखने
से भी रुसवा हो जाते हो!!!

अब पूरा समंदर का किनारा
मेरा काग़ज़ है कोरा कोरा
मैं लिखती रहती हू नाम तुम्हारा
और समंदर बस पढ़ता ही जाता है

हर बार लिखती हू
तुम्हारा नाम
समंदर के किनारे जाकर
गीली गीली भीगी भीगी नर्म रेत पर